"दक्षिण एशियाई साहित्य" शब्द भारतीय उपमहाद्वीप और उसके प्रवासी लेखकों के साहित्यिक कार्यों को संदर्भित करता है। जिन देशों में दक्षिण एशियाई साहित्य के लेखक जुड़े हैं उनमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल शामिल हैं। भूटान, म्यांमार, तिब्बत, और मालदीव से काम करता है कभी कभी भी शामिल हैं। दक्षिण एशियाई साहित्य अंग्रेजी में और साथ ही क्षेत्र की कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा गया है। दक्षिण एशियाई साहित्य का उत्पादन लगभग चालीस प्रमुख भाषाओं में किया गया है, जिनमें फारसी, पुर्तगाली, फ्रेंच और अंग्रेजी में अनुवाद शामिल हैं। पुरुष लेखकों के अलावा दक्षिण एशियाई साहित्य में भी कई  महिला लेखक रही हैं जिन्होंने  विभिन्न विषयों पर उपन्यास लिखे हैं, लेकिन मुख्य रूप से उनकी चिंता हमारे समाज में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की है। उन्होंने विधवा-विवाह, बाल विवाह, प्रेम कहानियां, हिंसा और पारिवारिक मुद्दों जैसे वर्जित विषयों पर उपन्यास भी लिखे हैं।

हमारी  संस्कृति में महिलाओं को परिवार के कमजोर रूप में दर्शाया गया है। यह कहा जाता है कि हम एक पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं, लेकिन दिन-ब-दिन चीजें बदल रही हैं और अधिक से अधिक महिलाएं शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और अपने अधिकारों के लिए खड़ी हैं। लेकिन लेखक उन्हें उसी पुराने पारंपरिक तरीके से चित्रित करते हैं। उनकी कहानियों में महिलाओं को इस स्तर तक दबा दिया जाता है कि वे लगभग मर जाती हैं। महिलाओं को शादी के लिए बेताब दिखाया जाता है क्योंकि वे इस दुनिया में अकेली नहीं रह सकतीं। लेखकों, विशेष रूप से महिला लेखकों ने एक आदर्श महिला के गुणों का वर्णन किया है, जो एक ऐसे व्यक्ति के रूप में है जो अपने जीवन में पुरुष की इच्छा के प्रति सहिष्णु, धैर्यवान और आत्मसमर्पण करता है, उसके पास खुद की कोई पहचान या स्वतंत्रता नहीं है। साथ ही , यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया भू सांस्कृतिक परंपरा एक समान होने के कारण स्त्रियों की जीवन स्थितियां एवं शोषण के कारण लगभग समान है । इस पत्र के अंतर्गर विद्यार्थी इन समस्त पक्षों से परिचित होंगे। 


इस पाठ्यक्रम में महिलाओं के उन स्वास्थ्य मुद्दों का विश्लेषण शामिल होगा, जिनका सामना उन्हें अपने सम्पूर्ण जीवन चक्र में करना पड़ता है। महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक, शारीरिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभावों का अध्ययन किया जाएगा। यह पाठ्यक्रम विद्यार्थियों को जेंडर एक सैद्धांतिक अवधारणा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विश्लेषण की एक श्रेणी के रूप में परिचय देगा - अर्थात, जेंडर विश्लेषण से हम महिलाओं और पुरुषों के स्वास्थ्य के अलग अनुभवों एवं जरूरतों को समझ सकते हैं। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य इस तरह के सवालों के जवाब देना है:

विभिन्न समाजों में जेंडर ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के निर्माण को कैसे प्रभावित किया है?

हमारे सामाजिक ढांचे और संरचनाएं, जैसे जेंडर, लोगों के अनुभवों और स्वास्थ्य की अपेक्षाओं को कैसे प्रभावित करती हैं?

भारत में स्वास्थ्य एक निजी स्वास्थ्य उद्योग के रूप में प्रचलन में है जो समाज के सभी वर्गों के लिए अपेक्षाकृत अनियमित और दुर्गम है। महिलाओं को उच्च जोखिम वाले समूहों के बीच शामिल हैं जिनकी सस्ती स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच नहीं है, जो हमें देश में उच्च लिंग-अनुपात असमानता से के रूप में भी दिखती है। इसे समझने के लिए महिलाओं के स्वास्थ्य को स्वतंत्र कारक नहीं माना जाता है, बल्कि इसे बच्चों के स्वास्थ्य के साथ जोड़ा जाता है और इसे 'महिला और बाल स्वास्थ्य' कहा जाता है। ये महिलाओं के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के उद्देश्य से मौजूदा सामाजिक सोच के पीछे हैं, जहाँ महिलाओं के स्वास्थ्य को महिलाओं के अधिकारों के मुद्दे के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि देश की बड़ी पारिवारिक स्वास्थ्य नीतियों का हिस्सा है। हाल के वर्षों में आईवीएफ जैसी प्रजनन तकनीकों, सरोगेसी आदि के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। इसने स्वास्थ्य क्षेत्र में महिलाओं के खिलाफ पहले से मौजूद जेंडर पूर्वाग्रह को और जटिल कर दिया है। इस पत्र के माध्यम से हम विद्यार्थियों में महिलाओं के स्वास्थ्य के मुद्दों और चिंताओं के बारे में जागरूकता पैदा करना और स्वास्थ्य सेवाओं तक महिलाओं की बेहतर पहुंच के लिए दृष्टिकोण विकसित करना है। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य जीवन के विभिन्न चरणों में महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति की व्यापक रूपरेखा प्रदान करना है। यह समाज में महिलाओं के ज्ञान, व्यवहार और स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करता है। 


प्रस्तुत पाठ्यक्रम जेंडर को जाति एवं वर्ग की श्रेणियों के अंतरसंबंधों के साथ समझने का बोध पैदा करती है. यह पाठ्यक्रम इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत के संदर्भ में पितृसत्ता और जाति व्यवस्था के अंतरसंबंधों का समझने का मार्ग प्रशस्त करता है। भारत में पितृसत्ता का कोई एक रूप नहीं है और यह कहीं न कहीं जाति की संरचना से अभिन्न रूप से जुड़ा है। भारत में पितृसत्ता का स्वरूप विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग व विभिन्न जातीय समूहों में अलग-अलग दिखाई देता है। इसलिए इस पाठ्यक्रम में जाति व्यवस्था के विभिन्न सैद्धांतिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है जिससे विद्यार्थी जाति के विभिन्न सिद्धांतों को जान पाएंगे। इसी के साथ-साथ इस पाठ्यक्रम की महत्वपूर्ण विशेषता जनजाति समाज में स्त्रियॉं की उत्पादन में भूमिका व उनकी सामाजिक स्थिति में आ रहे बदलावों को समझना है। प्रस्तुत पाठ्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य वर्ग की अवधारणा एवं जाति के साथ उसके अंतरसंबंधों को समझना भी है।


यह पाठ्यचर्या महिलाओं के जीवन में लंबे समय से बने हुए दोयम दर्जे की स्थिति की आधारभूत संरचना को समझने के लिए पितृसत्ता और यौनिकता के अंतरसंबंधों का बोध कराती है। इन्हीं अंतरसंबंधों के कारण सामाजिक पुनरुत्पादन की स्थिति पैदा होती है और सामाजिक पुनरुत्पादन के कारण पितृसत्ता लगातार मजबूत होती रहती है।  इस पाठ्यचर्या में यौनिकता के विमर्श पर विस्तार से बात की गई है और पितृसत्ता के साथ किस तरह की स्थितियाँ महिलाओं के जीवन में उत्पन्न होती हैं, उनका लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है। कुंवारी, विवाहित,माँ, विधवा, गणिका देवदासी आदि तमाम महिलाओं केआर जीवन में विविध प्रकार के यौनिक नियंत्रण और उनके प्रभावों का विस्तार से बोध इसमें कराया गया है। इसके अतिरिक्त तृतीय जेंडर को भी यौनिकता के विमर्श के साथ अध्ययन के दायरे में लाया गया है।