स्त्री अध्ययन पाठयक्रम के अंतर्गत इस प्रथम पत्र में अकादमिक जगत में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया, ज्ञानानुशासनों की निर्मिति तथा स्त्री अध्ययन के रूप में एक नवीन अन्तरानुशासनिक विषय की संकल्पना का इतिहास एवं उसके विकास की प्रक्रिया की चर्चा की गई है। इस पत्र में विचारधारा एवं ज्ञानानुशासनों की सामाजिक अवधारणा को समझने का प्रयास किया गया है। इस क्रम में पाठय् पुस्तकों में अंतर्निहित लैंगिकता के पूर्वाग्रहों से विद्यार्थियों को परिचित कराते हुए एक अकादमिक अनुशासन के रूप में स्त्री अध्ययन की प्रासंगिकता का विशद वर्णन किया गया है। वैश्विक स्तर पर स्त्री प्रश्नों के इतिहास ,यूरोपीय संदर्भों में स्त्री प्रश्नों की उपस्थिति तथा भारत में स्त्री प्रश्नों के इतिहास तथा स्वतंत्रता पूर्व एवं पश्चात स्त्री आंदोलनों के इतिहास उनके द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण मुद्दों तथा सामाजिक प्रतिक्रियाओं पर विद्यार्थियों को अवगत कराया गया है । स्त्री अध्ययन एक विषय के रूप में किस प्रकार स्त्री आंदोलनों की शैक्षणिक राजनीति के रूप में उभरा एवं उच्च शिक्षा संस्थानों में इसे एक विषय के रूप में स्थापित करने में महिला आंदोलनों की क्या भूमिका रही, इसकी भी इस पत्र में विस्तार से चर्चा की गई है। स्त्री आंदोलन एवं स्त्री अध्ययन के अंतरसंबंधों को समझने के क्रम में जमीनी स्तर पर किए गए आंदोलनों एवं अकादमिक जगत में स्त्री अध्ययन के अंतर्गत किए जाने वाले शोधों के बीच क्या समानताएं एवं विरोधाभास हैं, इसपर भी चर्चा की गई है । यह एक संभावनापूर्ण विषय है परंतु उच्च शिक्षा में सकारात्मक हस्तक्षेप के बावजूद ज्ञान परंपरा के रूप में समग्र रूप में अपनी पहचान बनाने की जद्दोजह्द से लगातार गुजर रहा है। इस विषय के समक्ष प्रविधि ,प्रवृत्ति तथा अध्ययन-अध्यापन की नवीन प्रयोगों के अत्यंतरोचक अनुभव हैं ।इसके बावजूद स्त्री अध्ययन संस्थानीकरण की चुनौतियों से गुजर रहा है। इस समस्या से भी विद्यार्थियों को अवगत कराया गया है।  यह एक अंतरअनुशासनिक विषय है जिसके कारण महत्वपूर्ण ज्ञानानुशासनों के साथ संवाद एवं उन्हें संवेदनशील ज्ञान के रूप में परिवर्तित करने में स्त्री अध्ययन हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाता है। विद्यार्थियों को कुछ महत्वपूर्ण ज्ञानानुशासनों की समीक्षा के जरीए स्त्री अध्ययन की अंतरअनुशासनिकता तथा उसके सकारात्मक परिणामों से परिचित कराया गया है।

 


प्रस्तुत पाठ्यचर्या इतिहास में महिलाओं की भागीदारी के साथ इतिहास को उसकी समग्रता में समझने का बोध पैदा करती है। इतिहास लेखन, महिलाओं की उसमें अदृश्यता ,निष्कासन और उन्हें इतिहास में दृश्य बनाने के लिए शामिल करने के प्रयासों का विस्तार से ज्ञान प्राप्त कराती है। प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति, उनके साथ होने वाले दोयम दर्जे के व्यवहार , हिंसा और उन व्यवहारों का प्रतिरोध करती महिलाओं के योगदानों  को दृश्य बनाना इसका महत्वपूर्ण उद्देश्य है। प्राचीन काल में महिलाओं के पास उपलब्ध संसाधन ,शिक्षा ,श्रम में सहभागिता, महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन , सामाजिक योगदान  में के संदर्भ में इस पाठ्यचर्या में विस्तार से बात की गई है ताकि विद्यार्थी इतिहास को आधी आबादी के अनुभवों के साथ जान पाये।  विविध धर्मों  में महिलाओं की स्थिति का अध्ययन इस पाठ्यचर्या की  महत्वपूर्ण विशेषता है, जो “धर्म”का महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण  समझने में मदद करता है।


स्त्री अध्ययन के इस पत्र के अंतर्गत विद्यार्थी स्त्री एवं साहित्य के अंतर्संबंधों से परिचित हो सकेंगे। सामाजिक सरोकारों से लैस बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं के बीच लंबे समय से यह लगातार चर्चा और चिंता का विषय रहा है कि हिंदी में स्त्री प्रश्न पर मौलिक लेखन आज भी काफी कम मात्रा में मौजूद है। स्त्री विमर्श की सैद्धांतिक अवधारणाओं एवं साहित्य में प्रचलित स्त्री विमर्श की प्रस्थापनाओं की भिन्नता या एकांगीपन के संदर्भ में पहला प्रश्न यह उठता है कि हिंदी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श के मायने क्या हैं? साहित्य, जिसे कथा, कहानी, आलोचना, कविता इत्यादि मानवीय संवेदनाओं की वाहक विधा के रूप में देखा जाता है वह दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक तथा अन्य हाशिए के विमर्शों को किस रूप में चित्रित करता है? साहित्य अपने यर्थाथवादी होने के दावे के बावजूद क्या स्त्री विमर्श की मूल अवधारणाओं को रेखांकित कर उस पर आम जन के बीच किसी किस्म की संवेदना को विकसित कर पाने में सफल हो पाया है? स्त्री के प्रश्न हाशिए के नहीं बल्कि जीवन के केंद्रीय प्रश्न हैं। किंतु हिंदी साहित्य की मुख्यधारा जिसे वर्चस्वशाली पुरुष लेखन भी कहा जा सकता है, में स्त्री प्रश्नों अथवा स्त्री मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जाती रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री अथवा स्त्री प्रश्न सिरे से गायब हैं बल्कि यह है कि स्त्री की उपस्थिति या तो यौन वस्तु (Sexual object) के रूप में है या यदि वह संघर्ष भी कर रही हैं तो उसका संघर्ष बहुत हद तक पितृसत्तात्मक मनोसंरचना अख्तियार किए होता है संघर्ष करने वाली स्त्री की निर्मिति ही पितृसत्तात्मक होती है। साहित्य की पितृसत्तात्मक परंपरा में लगातार स्त्री प्रश्नों का हास होता क्यों दिख रहा है? क्या स्त्री विमर्श को देह केंद्रित विमर्श के समकक्ष रखकर स्त्री-विमर्श चलाने के दायित्वों का निर्वाह किया जा सकता है? यदि साहित्य का कोई सामाजिक दायित्व है तो हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री देह को बेचने व स्त्री को सेक्सुअल आब्जेक्ट अथवा मार्केट के उत्पाद के रूप में तब्दील कर दिए जाने की जो पूँजीवादी पितृसत्तात्मक बाजारवादी रणनीति काम कर रही है उस मानसिकता से यह मुक्त क्यों नहीं है? उसको पहचान कर उसके सक्रिय प्रतिरोध से ही वास्तविक स्त्री विमर्श संभव है। क्यों सत्तर के दशक में नवसामाजिक आंदोलन के रूप में समतामूलक समाज निर्माण के स्वप्न को लेकर उभरे स्त्रीवादी आंदोलनों की चेतना एवं उनके मुद्दों को जाने-अनजाने नजरअंदाज करने का प्रयास किया जा रहा है? इस पत्र के माध्यम से विद्यार्थी इन समस्त पहलूओं को सूक्ष्मता से समझ सकेंगे ।


प्रस्तुत पाठ्यक्रम मेल गेज की अवधारणा को समझने का बोध पैदा करती है। मेल गेज की अवधारणा नारीवादी फिल्म सिद्धांत का महत्वपूर्ण घटक है। समाज में व्याप्त सत्ता-संबंध जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में भी प्रतिबिम्बित होते हैं। दृश्य माध्यमों एवं साहित्य में भी साफ तौर पर पुरुषवादी नज़रिये को देखा जा सकता है, जिसके तहत पुरुष दर्शकों की यौन संतुष्टि के लिए स्त्रियॉं को एक यौन वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। आम तौर पर मेल गेज की धारणा स्त्रियॉं को दो तरह से प्रदर्शित करती है। फिल्म में शामिल पात्रों के लिए कामुक वस्तु के रूप में एवं फिल्म के पुरुष दर्शकों के लिए कामुक वस्तु के रूप में। इसके फलस्वरूप फिल्म में पुरुष वर्चस्वशाली सत्ता के रूप में उभरता है एवं महिलाएं एक निष्क्रिय वस्तु के रूप में। फिल्म में पुरुष की नज़र को स्त्रियॉं की नज़र के ऊपर प्राथमिकता दी जाती है। इस पाठ्यक्रम में विद्यार्थी इस बात को विस्तार से समझेंगे कि मेल गेज की अवधारणा स्त्री की गरिमा को स्वीकार नहीं करती है। प्रस्तुत पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषता सिनेमा और टेलीविजन के राजनैतिक अर्थशास्त्र को समझना है। नवउदारवादी आर्थिक प्रक्रिया ने सिनेमा और टेलीविजन के स्वरूप में जो तब्दीलियाँ की हैं उनसे विद्यार्थियों को परिचित कराना, इस पाठ्यक्रम के प्रमुख उद्देश्यों में सन्निहित है।          


एक अकादमिक अनुशासन के बतौर स्त्री अध्ययनसिर्फ स्त्रियों का या स्त्रियों के लिए ही नहीं है, बल्कि यह विभिन्नताओं का संयोजन है। यह सम्पूर्ण मानवताका अध्ययन है जिसके जरिए हम हाशिए पर खड़े उन सभी समूहों का अध्ययन करते हैं जिन्हें मुख्यधारा का ज्ञान नजरअंदाज करता है। एक विषय के रूप में यह महज कुछ जानकारियों या सूचनाओं को जान लेने या सीख लेने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह जेंडरगत विभेदों के बरक्स उस समतामूलक स्त्रीवादी चेतना को अपने जीवन-व्यवहारों में आत्मसात करने से भी संबंधित है जो बदलाव की शैक्षणिकराजनीति का जरिया हैं।स्त्री अध्ययन पाठयक्रम के अंतर्गत इस पत्र में छात्र विभिन्न भारतीय सामाजिक संरचना को समझते हुए  समाज में कार्य करने की विभिन्न हस्तक्षेपी मॉडल  के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे जिसके जरिये वो समाज में कार्य करते हुए जेंडरगत नजरिए से समाज का अवलोकन एवं व्याख्या कर सकने में सक्षम बनेंगे। सामाजिक हस्तक्षेप के माध्यम से  समाज में विद्यमान जेंडर के स्तर असमानता तथा भेदभाव को समाप्त कर सकने में सक्षम बनेंगे।