प्रस्तुत पाठ्यक्रम जेंडर और विकास के राजनैतिक अर्थशास्त्र को समझने का बोध पैदा करता है। दुनिया के हर समाज के साथ-साथ भारतीय समाज में लिंग, जाति, वर्ग के आधार पर क्षेत्रीय भिन्नताएँ साफ दिखती हैं। इस वजह से विकास की विभिन्न प्रक्रियाओं का समाज के भिन्न-भिन्न तबकों पर अलग-अलग असर पड़ता है। इस पाठ्यक्रम में इस बात की विस्तार के साथ चर्चा की गई है कि क्या तीसरी दुनिया के देशों में आधुनिकीकरण की परियोजना का स्त्रियॉं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है? इस पाठ्यक्रम में राजनैतिक अर्थशास्त्र पर विस्तार के साथ बात की गई है जिससे विद्यार्थी पूंजीवादी व्यवस्था के पितृसत्तात्मक पहलू को समझ सकेंगे। इस पाठ्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य नवउदारवाद की सैद्धांतिकी को समझना है। भारत में विकास के नवउदारवादी मॉडल ने स्त्री श्रम के अनौपचारिकीकरण को विस्तार दिया है तो वहीं दूसरी तरफ मुक्त व्यापार पर आधारित बाजारीकरण से स्त्रियॉं के वस्तुकरण को और बल मिला है।


पाठयक्रम के इस पत्र के अंतर्गत विद्यार्थी भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, राष्ट्र्वाद तथा भारत महिला प्रश्नों का उदय राष्ट्रवाद की अपनी परिकल्पना के साथ किस प्रकार हुआ,यह समझ विकसित कर सकेंगे । 19वीं सदी में भारत में उभरे राष्ट्रवाद के केंद्र में 'स्त्री प्रश्न' थे। हालाँकि ऐसा नहीं था कि उसके पूर्व भारत में महिला प्रश्नों पर चर्चा नहीं हो रही थी। भारत में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना है। इसकी झलक हमें बुद्ध और उनके शिष्य आनंद के उस वैचारिक बहस में देखने को मिलती है। 19वीं सदी के प्रारंभ से ही स्त्रियों की सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति बहस के केंद्र में थी। राष्ट्रवादी विमर्श के प्रथम चरण में, महिला प्रश्नों का उद्भव नए शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच एक प्रकार के पहचान की संकट के तौर पर हुआ। यह वो मध्यम वर्ग था जो औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का प्रथम उत्पाद था। भारत की पराधीन एवं पीड़ित महिला छवि के प्रति सहानुभूति का छद्म रचकर औपनिवेशिक सत्ता भारत की सांस्कृतिक परंपरा को दमनकारी एवं बर्बर रूप में प्रस्तुत करने के लिए लगातार नए तर्कों का सहारा ले रही थी। इसी सदी में जेम्स मिल की हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया (1817) प्रकाशित हुई जिसमें मिल ने समूचे भारतीय इतिहास का हिंदू काल, मुस्लिम काल और अँग्रेजी काल में विभाजन कर भारत की एक संप्रदायिक छवि भी निर्मित की। मिल ने भारतीय अतीत की कटु आलोचना के आधार पर भारत के अँग्रेजों के हाथों पराधीन होने के तर्कसंगत बताने का प्रयास किया। 19वीं सदी में भारत और इंग्लैंड के बीच सांस्कृतिक टकराव के केंद्र में भारतीय एवं पाश्चात्य स्त्रियाँ थीं जिनकी तुलना के माध्यम से भारत को निकृष्टतम बताया जा रहा था। यह औपनिवेशवादी दृष्टिकोण पूरे भारत की पौरुषवादी राष्ट्रवादी मानसिकता को बेहद आहत करने वाला था। यह स्थिति किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी कि कोई बाहरी व्यक्ति या सत्ता भारतीयों के आंतरिक मसलों में हस्तक्षेप करे। यहीं से शुरुआत होती है स्त्री प्रश्नों पर अपनी अलग अलग प्रतिक्रिया देने की। इस पत्रके अंतर्गत विद्यार्थी इस पूरी विकास यात्रा का अध्ययन करेंगे ।


यह पाठ्यचर्या राज्य की संरचना, उसके स्वभाव के साथ साथ महिलाओं के प्रति उसके दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। इसके अंतर्गत राज्य द्वारा महिलाओं के लिए की गईं विभिन्न व्यवस्थाओं और उनकी सीमाओं पर विस्तृत बात की गई है। महिलाओं की समानता,  नागरिक के रूप में उनके अधिकार, उनके लिए बनी नीतियाँ, कानून , शिक्षा आदि पर बेहतर समझ बनाने का प्रयास इस पाठ्यचर्या में किया गया है। इनके माध्यम से हम 19 वीं सदी में महिला प्रश्नों के कानून और शिक्षा के संदर्भ में उभार से लेकर वर्तमान में महिलाओं की शिक्षा और इस पाठ्यचर्या में कानूनों  का स्त्रीवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण का भी प्रयास किया गया है, ताकि कानून के भीतर के भी जेंडरगैप को समझा जा सके । महिलाओं के हित  में बने विविध क़ानूनों के निर्माण या उनमें संशोधन के प्रयास में महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में भी विस्तृत ज्ञान इसमें उपलब्ध है।


प्रस्तुत पाठ्यक्रम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आ रहे बदलाव को समझने का बोध पैदा करता है। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में वैश्विक स्तर पर कई सारी घटनाएं घटित हुईं। सोवियत रूस के विघटन, चीन के द्वारा उदारीकरण की नीतियों के अपनाये जाने ने न केवल दूसरी दुनिया के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया बल्कि एक ध्रुवीय विश्व के लिए मार्ग भी प्रशस्त कर दिया। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में ही दुनिया के बहुत सारे देशों ने मुक्त व्यापार की नीतियों को अपनाना शुरू कर दिया और इसी के साथ बहुत सारे बुद्धिजीवियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अब राष्ट्र राज्य अप्रासंगिक हो गए हैं। इस पाठ्यक्रम में विद्यार्थी इस बात को विस्तार से समझेंगे कि भूमंडलीकरण के इस युग में क्या राष्ट्र राज्य वास्तव में अप्रासंगिक हो गए हैं। प्रस्तुत पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषता युद्ध की स्थितियों में स्त्रियॉं पर पड़ने वाले प्रभाव को समझना है। साथ ही साथ इस पाठ्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य तीसरी दुनिया के तमाम सारे देशों में हिंसा के खिलाफ स्त्रियॉं के प्रतिरोध से विद्यार्थियों को अवगत कराना है।